जनजाति कला
जनजाति कला जनजाति संस्कृति के दर्शन हमें विभिन्न अनुष्ठानों में दिखाई देता है। इनके जीवन का सौन्दर्य बोध चित्रों , शिल्पों , नृत्य और गीतों में दिखाई देता है। इनके चित्रों को देखने से पता चलता है कि ये आड़ी तिरछी रेखाएँ नहीं उनमें रंग और रेखाओं का अनन्त विस्तार दिखाई देता है। वे कला की पूर्ति के लिये प्रकृति से प्राप्त सहज सुलभ संसाधनों का उपयोग करते हैं। इनके चित्रों में रंगों का फैलाव , कहीं रेखाओं का उलझाव , कहीं बिन्दुओं का विस्तार , कहीं अभिप्रायों का विलक्षणता और कहीं सिर्फ आकारों की अनघड़ता के दर्शन होते हैं। चिड़िया , मोर , हिरण आदिवासियों के लिये सिर्फ पशु-पक्षी नहीं हैं , बल्कि इनका गाँव , घर और कृषि से गहरा सम्बन्ध होता है। इनका प्रकृति से निकट सम्बन्ध तो है ही , साथ ही कला जीवन का अनिवार्य अंग है। भील जनजाति के लोग ‘ पिथौरा ’ मिथकीय घोड़े बनाते हैं। इसी प्रकार कोरकू की स्त्रियाँ दीवारों पर ‘ थाठिया ’ खड़िया या गेरू से बनाती है। भील , गोंड , परधान , राठ्या और बैगा जनजाति के लोग स्वयं के शरीर को ‘ गुदने ’ से अलंकृत कराते हैं। ये गुदने मात्र शारीरिक अलंकर...