युनेस्को विश्व विरासत स्थल/ विश्व धरोहर स्थल
युनेस्को विश्व विरासत स्थल/ विश्व धरोहर स्थल ऐसे खास स्थानों (जैसे वन
क्षेत्र, पर्वत, झील, मरुस्थल, स्मारक, भवन, या शहर इत्यादि) को कहा जाता है, जो विश्व विरासत स्थल समिति द्वारा चयनित होते हैं; और यही समिति इन स्थलों की
देखरेख युनेस्को के तत्वाधान में करती है।
इस
कार्यक्रम का उद्देश्य विश्व के ऐसे स्थलों को चयनित एवं संरक्षित करना होता है जो
विश्व संस्कृति की दृष्टि से मानवता के लिए महत्वपूर्ण हैं। कुछ खास परिस्थितियों
में ऐसे स्थलों को इस समिति द्वारा आर्थिक सहायता भी दी जाती है।
मध्य प्रदेश की तीन ऐतिहासिक जगहों को
यूनेस्को ने विश्व धरोहर की सूची में शामिल किया है. इनमें से
मध्य प्रदेश का पहला विश्व धरोहर स्थल खजुराहो है खजुराहो के मंदिरों
को 1986 में विश्व धरोहर स्थलों में सम्मिलित किया गया था खजुराहो मध्य प्रदेश
के छतरपुर जिले में स्थित एक
छोटा सा
कस्बा
है भारत में ताजमहल के बाद सबसे ज्यादा देखे जाने और घूमनेके लिए पसंद किए जाने
वाले स्थानों में खजुराहो का नाम आता है खजुराहो को यूनेस्को द्वारा 1986 में
विश्व विरासत स्थल की सूची में शामिल किया गया खजुराहो वात्सायन की कामुक
प्रतिमाओं तथा कंदरिया महादेव मंदिर तथा जैन मंदिरों के लिए विश्व प्रसिद्ध है।।
दूसरा सांची का स्तूप
बौद्ध स्मारक
सांची को विरासत स्थलों की सूची में 1989 में सम्मिलित किया सांची का स्तूप बौद्ध
स्मारक है जो कि मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में सांची नामक
स्थान पर स्थित है ।
इस स्तूप को सन 1989 में यूनेस्को
की विश्व विरासत सूची में सम्मिलित किया गया
इस स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक के द्वारा करवाया
गया था । सांची एक ऐसी जगह
है जो इतिहास के प्रेमियों के साथ-साथ प्रकृति प्रेमियों के लिए भी है। सांची केवल बौद्ध धर्म को समर्पित नहीं है यहां जैन और हिन्दु धर्म से सम्बंधित
साक्ष्य मौजूद हैं। मौर्य और गुप्तों के समय के व्यापारिक मार्ग में स्थित होने के
कारण इसकी महत्ता बहुत थी और आज भी है। सांची अपने आंचल में बहुत सारा इतिहास
समेटे हुए है।
विदिशा जिले से मात्र दस किमी दूर स्थित सांची अपने बौद्ध स्तूपों के लिए प्रसिद्ध है। यह
यूनेस्को के विश्व विरासत स्थल में शामिल है। यूनेस्को ने सांची स्तूप को 1989 में विश्व विरासत स्थल घोषित किया था। सांची में स्तूपों का निर्माण तीसरी ईसा पूर्व
से बारहवी शताब्दी तक चलता रहा। सांची को काकनाय, बेदिसगिरि, चैतियागिरि आदि नामों से जाना जाता था। सांची में एक पहाड़ी
पर स्थित यह एक कॉम्पलेक्स है जहां चैत्य, विहार, स्तूप और मंदिरों को देखा जा सकता है। यह हैरानी का विषय है
कि भारत के सबसे पुराने मंदिरों में से कुछ मंदिर यहां है।
इन स्तूपों का निर्माण सांची में ही क्यों? इसके पीछे कुछ कारण है, जिसमें एक कारण सम्राट अशोक की पत्नी महादेवी
सांची से ही थी और उनकी इच्छानुसार यह स्तूप सांची में बनाए गए। एक कारण यह हो
सकता है कि मौर्यकाल में विदिशा एक समृद्ध और व्यापारिक नगर था और उसके निकट यह
स्थान बौद्ध भिक्षुओं की साधना के लिए अनुकूल थी। इन सबसे अलग सर्वमान्य तथ्य यह
है कि कलिंग युद्ध की भयानक मारकाट के बाद अशोक ने कभी न युद्ध करने का निर्णय
लिया। इस युद्ध अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उसने पूरे भारत में स्तूपों
का निर्माण कराया जिनमें से सांची भी एक था।
सांची स्तूप में स्तूप क्रमांक एक सबसे बड़ा स्तूप है। इस
स्तूप का निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया था। इस स्तूप का आकार उल्टे कटोरे की जैसा
है। इसके शिखर पर तीन छत्र लगे हुए है जो कि महानता को दर्शाता है। यह स्तूप गौतम
बुद्ध के सम्मान में बनाया गया। इस स्तूप में प्रस्तर की परत और रेलिंग लगाने का
कार्य शुंग वंश के राजाओं ने किया। इस स्तूप में चार द्वार बने हुए है जिनका
निर्माण सातवाहन राजाओं ने करवाया था। इन द्वारों पर जातक और अलबेसंतर की कथाएं को
दर्शाया गया है। इस स्तूप की पूर्व दिशा में स्तूप क्रमांक तीन है जो बिल्कुल
साधारण है। सांची में कुल मिलाकर बड़े छोटे 40 स्तूप हैं।
स्तूप क्रमांक एक की पश्चिम दिशा में मंदिर क्रमांक 17 है जिसके अब केवल पिलर ही बचे है। इस मंदिर का आधार सम्राट
अशोक के द्वारा तैयार किया था। मंदिर क्रं 17 के बाई ओर एक
मंदिर है जो कि पूर्ण विकसित है। इस मंदिर में जैन तीर्थंकर की मूर्ति भी स्थापित
है। यह दोनों मंदिर गुप्तकालीन है। स्तूप क्रं एक के पश्चिमी द्वार के पास कभी
पिलर पर अशोक स्तंभ स्थापित था। जिसका अब खंड़न हो चका है, इसका निचला सिरा पिलर मौजूद है जबकि अशोक स्तंभ सांची
संग्रहालय में रखा हुआ है। यह पिलर बहुत चिकना है, जिसके बारे में
कहा जाता है कि इस पर पॉलिश की गई है जो शुंगवंश के शासकों ने करवाई थी।
स्तूप क्रं एक से थोड़ी दूर मंदिर क्रंमाक 40 स्थित है। इस मंदिर का अब अवशेष मात्र ही रह गया है। इस जगह
पर केवल पिलर ही दिखाई देते हैं। यह मंदिर आग से जलने के कारण बर्बाद हो गया। इस
मंदिर के थोड़ी आगे नागर शैली में मंदिर दिखाई देते है जो कि जैन को समर्पित है।
स्तूप क्रमांक एक की उत्तर दिशा में सीढ़ियों से नीचे उतरकर
स्तूप क्रमांक दो में पहुंचा जा सकता है। यह स्तूप उल्टे कटोरे के आकार का बना हुआ
है। इस स्तूप के शिखर पर केवल एक छत्र लगा हुआ है। स्तूप क्रमांक दो से ही गौतम
बुद्ध के दो सारिपुत्त और महामोदगलायन शिष्यों की अस्थियां मिली थी। इन अस्थियों
को अब महाबोधि सोसाइटी के चैत्य में रखा गया है। प्रत्येक वैशाख पूर्णिमा को इन
अस्थियों को दर्शनार्थ रखा जाता है। स्तूप क्रमांक दो जाने के मार्ग में एक विशाल
विहार मिलता है जो की सांची का सबसे विशाल विहार है।
जिस अवस्था में आज स्तूप दिखाई दे रहे है वास्तव में ऐसे
नहीं थे। 13 वीं शताब्दी से 17 वीं शताब्दी तक
इनकी देखरेख न होने से और आक्रमणकर्त्ताओँ के आक्रमण से स्तूप खंड़हर में बदल गए। 1818 में जनरल टेलर ने इस जगह की खोज की तथा सर्वें किया। 1851 में अलेक्जेण्डर कनिंघम ने उत्खनन कार्य किया। सर जॉन
मार्शल ने 1912-19 तक उत्खनन किया तथा सांची को आज के स्वरूप में लाने
का श्रेय सर जॉन मार्शल को जाता है। उत्खनन से प्राप्त सामग्रियों को सांची के
संग्रहालय में रखा गया है जिसका नाम जॉन मार्शल के नाम पर रखा गया है।
तीसरा भीमबेटका की गुफाएं है। भीमबेटका
गुफाएं भारत के मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित है
इन गुफाओं को वर्ष 2003 में यूनेस्को
की विश्व धरोहर स्थल की सूची में सम्मिलित किया गया था,भीमबेटका गुफा समूह की खोज 1957 में डॉ विष्णु श्रीधर वाकणकर के द्वारा की गई थी।
भीमबेटका की गुफाओं का संबंध नवपाषाण काल से है।
भीमबेटका (भीमबैठका) भारत के मध्य प्रदेश प्रान्त के रायसेन
जिले में स्थित एक पुरापाषाणिक आवासीय शैलाश्रयों पुरास्थल है। यह
आदि-मानव द्वारा बनाये गए शैलचित्रों और शैलाश्रयों के लिए प्रसिद्ध है। इन
चित्रों को पुरापाषाण
काल से मध्यपाषाण काल के समय का माना जाता है। ये
शैलाश्रयों चित्र भारतीय
उपमहाद्वीप में मानव जीवन के प्राचीनतम चिह्न
हैं। यह स्थल मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से
४५ किमी दक्षिणपूर्व में रायसेन
जिले स्थित है। इनकी खोज वर्ष १९५७-१९५८ में डॉक्टर विष्णु
श्रीधर वाकणकर द्वारा की गई थी।
भीमबेटका क्षेत्र को भारतीय
पुरातत्व सर्वेक्षण, भोपाल
मंडल ने अगस्त १९९० में
राष्ट्रीय महत्त्व का स्थल घोषित किया। इसके बाद जुलाई २००३ में यूनेस्को ने इसे विश्व
धरोहर स्थल घोषित किया।
यहाँ 600 शैलाश्रय हैं जिनमें 275 शैलाश्रय चित्रों द्वारा सज्जित
हैं। पूर्व
पाषाण काल से मध्य ऐतिहासिक काल तक यह स्थान मानव गतिविधियों का
केंद्र रहा। यह बहुमूल्य धरोहर अब पुरातत्व विभाग के संरक्षण में है। भीमबेटका
क्षेत्र में प्रवेश करते हुए शिलाओं पर लिखी कई जानकारियाँ मिलती हैं। यहाँ के शैल
चित्रों के विषय मुख्यतया सामूहिक नृत्य, रेखांकित
मानवाकृति, शिकार, पशु-पक्षी, युद्ध और प्राचीन मानव जीवन के
दैनिक क्रियाकलापों से जुड़े हैं। चित्रों में प्रयोग किये गए खनिज रंगों में
मुख्य रूप से गेरुआ, लाल और सफेद हैं
और कहीं-कहीं पीला और हरा रंग
भी प्रयोग हुआ है।
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